Wednesday, April 15, 2020

विचार

भारतीय स्त्रियों की दशा के बारे में हर कोई लिखता है.. इन दशाओं के कई कारण हैं, उनमें से एक कारण हमारी शिक्षा व्यवस्था भी है.. आज भी बच्चों की पाठ्य पुस्तक में महिलाओं का पहला चित्रण घर में ही किया जाता है.. आप किसी भी हिंदी साहित्य के पाठ्यक्रम को उठा कर देख लें.. अधिकतर कहानियों में मां का चित्रण घर के आसपास के ही वातावरण में सिमटा हुआ मिलेगा.. उन्हें गृहणी के रूप में ही प्रस्तुत किया जाता रहा है.. बच्चों के मन में मां का मतलब घर पर रहकर सबके लिए खाना पकाने वाली सबकी देखभाल करने वाली के रूप में शुरुआत से ही कर दिया जाता रहा है.. धीरे धीरे ये बात मन में घर करने लगती है.. जो आगे चलकर कहीं न कहीं किसी न किसी रूप में प्रदर्शित होती है.. 

अब जरूरत है इस तरह के पाठ्यक्रमों में बदलाव की.. ताकि बच्चों के मन में मां का मतलब सिर्फ गृहणी नहीं होना चाहिए.. कार्यालयों मे काम करने वाली महिलाओं के विषय में लिखकर उसे कहानी के रूप में पाठ्यक्रमों में शामिल किया जाना चाहिए..

Sunday, April 5, 2020

भूख

"बहुत तेज़ भूख लगी है मां कुछ खाने को दो न, मां झ्ट से कुछ भी लाकर खिला दे" और मां कुछ न कुछ ले ही आती खिलाने को । कितना अच्छा था न वो बचपन जब सब कुछ बना बनाया मिल जाता था । ज्यों ज्यों बड़े हुए अपनों से दूर होते चले गए , कभी पढ़ाई के नाम पर हॉस्टल कभी कंपीटीटिव एग्जाम की अच्छी तैयारी के लिए अपने शहर से दूर कभी नौकरी के लिए कभी उन्हीं नौकरियों के तबादले की वजह से, पीछे कितना कुछ छूट जाता है यार दोस्त शहर कस्बे गली गांव, बस छूटती नहीं है तो ये पेट की ' भूख' ।  
मां यहां सब कुछ मिलता है दूध दही घी पापड़ अचार चावल दाल सब कुछ, पर नहीं मिलता है तो वो है तेरे हाथ का स्वाद । याद है बचपन में मुझे जब सोयेबीन की सब्जी खाना पसंद नहीं था तो कैसे तुमने मुझे ये रसगुल्ला है समझाकर सोयाबीन खिलाया । खुद बना लूं  चाहे कितने ही अच्छे तरीके से बना लू सोयाबीन रसगुल्ला जैसा स्वाद नहीं देता । आज खाना खा लिया है मैंने पर पता नहीं आज भूखा ही क्यों महसूस कर रहा हूं शायद आज भूखा हूं तेरी लाड का तेरे प्यार का । सब कुछ तो मिल जाता है यहां पर पता नहीं क्यों आज भी पनीर वाली सब्जी -रोटी भी वो स्वाद नहीं दे पाती जो तेरे हाथ की बासी रोटी और चाय दे जाती है। 

Thursday, April 2, 2020

साथी

साथी, दोस्त, यार, मित्र, मित, सखा चाहे जिस भी नाम से कह लो, 
साथी, जीवन का वो अभिन्न किरदार जो कभी कभी हमारा किरदार निर्धारित कर जाता है। साथी को साथी कहते हैं क्योंकि कभी कभी दुनियां के सारे रिश्ते नाते टूट जाने के बाद भी ये आपके साथ रहता है। बाकि रिश्ते नाते हमें जन्म से मिलते हैं लेकिन साथी हम खुद चुनते हैं। कभी बस में बगल की सीट पर सफ़र करने वाला भी आपके मन में इस तरह अपना घर बना जाता है कि आप सफ़र के साथ साथ उसके साथी हो जाते हैं। 
जीवन के हर पड़ाव में आपको साथी, दोस्त, मित्र, सखा की जरूरत पड़ती है । शिशु अवस्था से ही आपकी मां आपके पिता आपके बड़े भाई बड़ी बहन आपकी सखा होती हैं। थोड़े बड़े होने पर गांव समाज के हमउम्र बच्चे आपके दोस्त हो जाते हैं । स्कूल, कॉलेज ऑफिस हर जगह हमारे साथ हमारा कोई न कोई सखा जरूर होता है चाहे वो स्कूल का किसी बड़े घर का बच्चा हो या ऑफिस का दफ्तरी ही क्यों न हो । हम हमेशा खुद को घिरे रखना चाहते हैं अपने दोस्तों के बीच अपने परिवार के बीच। 

भारत भारती और संस्कार

"अ जी सुनती हो ठकुरानी! कहां हो?? ज़रा फ्रिज से ठंडा पानी लेती आओ, बड़ी प्यास लगी है और सुनों अपनी भारती के लिए रिश्ता आया है। लड़का प...